बुधवार, 19 मई 2010

अर्जुन मुंडा:झारखंडी राजनीति में बलि का नया बकरा

भी तक मीडिया और राजनीति जगत से जिस तरह की प्रामाणिक सूचनाएं रही है,उससे यह तय है कि यदि कोई अनहोनी नहीं हुआ तो आगामी २५ मई को राज्य में अब तक की सबसे निकम्मी-आलसी "शिबू सरकार" का पतन हो जायेगा और उसके स्थान पर भाजपा सांसद अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में सरकार बनाने-चलाने के तिकडम दिखने लगेगें.अर्जुन मुंडा वह शख्स हैं.जो झामुमो की गोद में पले हैं और आज भाजपा के आँचल में बढ़ रहे हैं.ऐसे में ये मान लेना कि वे सब कुछ संभाल लेगें,फिलहाल यह कहना बड़ा मुश्किल है क्योंकि यहाँ के राजनीतिक हालात इतने जटिल है कि मुंडा के सामने उनके राजनीतिक गुरू सोरेन से भी अधिक कांटे बिछे नज़र आते हैं. झामुमो सुप्रीमो के सामने तो मेरी समझ में एकमात्र समस्या मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के लिए विधानसभा चुनाव लड़ना और उसे जीतने की थी,जो कि तमाड विधानसभा उपचुनाव की तरह आगे की हार का भय,पारिवारिक कलह के बीच अपनी ही पार्टी के अंदरूनी असहयोग के कारण संभव नहीं हो सका तथा उनकी समूची सरकार जन्मकाल से हीपालिटिकल कौमामें है. भाजपा-झामुमो-आजसू-जदयू के असहज गठबंधन के द्वारा घोषित भावी मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की हालत देखिये : शपथ ग्रहण के पहले ही उपमुख्यमंत्री-मंत्री के कोटे विभाग तय कर लिए गये हैं. ५०-५०- के फार्मूले पर झामुमो-आजसू को उपमुख्यमंत्री के अलावे क्रमशः पांच-तीन मंत्री और सहयोगी जदयू को एक मंत्री पद मिलेगें. भाजपा के खाते में मुख्यमंत्री,विधानसभा अध्यक्ष तीन मंत्री पद रहेगें. उसपर तुर्रा यह कि झामुमो के कुल १८ विधायकों में १२ विधायक विदक रहे हैं.अंदर ही अंदर कांग्रेस की यूपीए गठबंधन के साथ खिचड़ी पकाने की सूचना है. हालांकि आज बिहार के गर्भपात से जन्में इस झारखंड में जिस तरह की परिस्थतियां उत्पन्न है,उस आलोक में संभावितमुंडा सरकारकी लंबी उम्र की कामना होनी चाहिए लेकिन जहां झारखंड की कुत्सित राजनीति की वेदी पर अर्जुन मुंडा सरीखे एक और बकरे की बलि देने की तैयारी कर ली गई हो, ऐसे में कोई कब तक खैर मनाएगा?

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