शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

कानून के अन्धा होने के बात को प्रमाणित कर रहा है झारखंड मे पेसा कानून के तहत पंचायत चुनाव कराने की सुप्रीम कोर्ट का फैसला

जी हाँ ये भारतीय क़ानून है। इसे किसने लिखा ? बाबा आंबेडकर साहेब ने / गांघी जी ने /नेहरू जी ने या फ़िर हमारे राजेन्द्र बाबू ने? या फिर बतौर वसीयत मुगल-अंग्रेज लोग ही ये सब छोड गये है..जिसके तहत झारखण्ड में ये नजारा दिख रहा है……केन्द्र सरकार ने ग्रामीण पंचायती राज्य व्यवस्था के तहत विकास कार्यों के मजबूती के लिए सारे अधिकार ग्राम प्रधानों को सौंप दी है.समूचे प्रांत में प्रधान के सारे पद अनुसूचित जाति जन जाति के लिए आरक्षित कर दी है।एक सर्वेक्षण के अनुसार करीव 35% प्रधान असिक्षित है । ७८ % से अधिक ग्राम प्रधान हरिया-दारू-गांजा-भांग जैसे दिमागी संतुलन ख़राब करने वाली नशा करते है। करीव ९२% ग्राम प्रधानो को विकास योजनाओं की सही जानकारी नहीं है.वामुश्किल एक-दो % से इतर लूट-खसोंट में संलिप्त हैं। आधे से अधिक प्रधान ग्रामीणों की की बैठक सुचारू ढंग से नही करते और सरकारी अधिकारियों से कभी कभार ही बातचीत कर पाते हैं।उक्त सर्वेक्षण में इस तरह के कई संवेदनशील तथ्य उभरकर सामने आई है।उल्लेखनीय तत्थ है कि झारखण्ड प्रांतमें करीव 27% आबादी अनुसूचित जाति जन जाति की है, वही 73% आबादी उन लोगों की है जिसे शाशन प्रसाशन मूलवासी मानता है. एक बार फिर ये सुप्रीम कोर्ट के चपेट मे आ गये है और समुचे झारखण्ड मे इनका गुस्सा उबाल पर है.

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