शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

बिहार : "नीतिश की कूटनीति का एक हिस्सा है नई चुनावी हार"

-मुकेश कुमार-
बिहार में एन डी ए की चुनावी हार क्या है?वाकई नीतिश का कुनबा फेल हो रहा है या वे इस अप्रत्यासित हार में अपनी भावी जीत का जश्न मना रहा है? राष्टीय राजनीति विश्लेषक इन दिनों इस सबाल का जबाव पाने के लिए राजधानी पटना के गलियों को सूंघते फ़िर रहे है । आख़िर पिछले चुनाव में अपनी विकासपरक छवि के बल लालू - पासवान के साथ कांग्रेस की नकेल कसने वाले नीतिश दो तिहाई सीटो के अन्तर से कियों पीछे हो गए । सुच पूछिये तो लोजपा के सुप्रीमो रामबिलास पासवान को उन्ही के मांद में शिकस्त देने और बीस साल तक छाती पर मुंग दल कर राज कराने का दंभ भरने वाले लालू प्रसाद को पाटलिपुत्र जैसे यादव बहुल सीट पर पटकनी देकर नीतिश ने यह संदेश दिया था कि जो बिहार को राष्ट्रीय मानचित्र पर अपनी प्रदूषित छवि में चमक भर सके।
गत १७ सितम्बर को १८ सीटो के आए चुनाव परिणाम में नीतिश की पार्टी ज द यू को मात्र ३ सीटो पर ही संतोष करना परा । उधर काग्रेस और नीतिश सरकार पर साझा आक्रामक तेवर अख्तियार करते हुए लालू-पासवान ने सीटो पर पतह हासिल कर ली। बेशक ये जीत लालू-रामविलास की जोरी को एक नई स्फूर्ति प्रदान करेगी। अब सबाल उठाता है कि क्या लालू का सितारा फ़िर बुलंद होगा? प्रदेश में फ़िर वही ---राज कायम होगा? यदि इस सबाल का जबाव गहनता से ढूढने पर जिस तरह के कूटनीति सामने आती है वे 'तीर' कांग्रेस को छेड़ती नजर आती है ।
नीतिश नही चाहते है कि काग्रेस बिहार में फ़िर से ८० के दशक जैसा जनाधार बना ले। इसी रणनीति के तहत नीतिश ने अपने 'बिग ब्रदर ' लालू दल को संजीवनी दिया है। लालू भी यह मान लिया है कि वे नीतीश राज का बिरोध कर अब भले ही बिहार सुख न भोग सके , इतना तो अवश्य होगा की दमदार राजनीति बरकरार रहेगी। उधर नीतीश को अब लालू - पासवान से कोई ख़तरा नजर नही आती है । उन्हें लगता है की उनकी सरकार को जब भी धक्का लगेगा तो कांग्रेस से। सोनिया की खुली और राहुल की राजनीति में दमदार उपस्थिति से कांग्रेसियों में इक नई ऊर्जा का संचार हुआ है। नीतिश के सहयोगी भाजपा भी लालू-पासवान से अधिक कांग्रेस पर नजर रखना चाहती है।

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